स्कोलियोसिस : अब आसान हुआ इलाज


 

डॉ. आयुष शर्मा,संस्थापक और निदेशकलेजर स्पाइन क्लिनिक, पटना :- दिल और फेफड़े की तकलीफ पैदा करने वाली पीठ यानी रीढ़ संबंधी बीमारी स्कोलियोसिस प्राचीन काल से ही कौतूहल का विषय रहा है। वेदों में अष्टावक्र के उल्लेख से रीढ़ के विकार की प्राचीनता की पुष्टि होती है। 

अपने यहां अभी तक लोग इसे लाइलाज समझते रहे हैं जबकि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इसका इलाज काफी आसान व संतोषजनक हो गया है। अध्ययनों के मुताबिक इस समय करीब एक फीसदी आबादी कूबड़ सहित रीढ़ के अन्य विकार से ग्रसित है।

इसका कारण क्या है? 
 
स्पाइन (रीढ़ की हड्डी) में असमान्य वृद्धि के कारण रीढ़ (पीठ) में विकार पैदा हो जाता है, जिसकी अनदेखी से या तो स्कोलियोसिस हो सकता है या रीढ़ में अन्य तरह की विकृति हो सकती है। स्कोलियोसिस सहित रीढ़ के अन्य विकारों से स्थाई मुक्ति संभव है। आज इससे निजात पाने के लिए एंडोस्कोपी एस्टेट सर्जरी इस्तेमाल में लाई जा रही है। यह इतना आसान और सरल है कि इसमें चीर-फाड़ की आवश्यकता को न्यूनतम कर दिया है। 
 
मानव की रीढ़ की बनावट ऐसी है कि उसका आगे-पीछे दाएं-बाएं झुकना संभव है। धरती पर यह सुविधा और किसी जीव को नहीं मिली है। गर्दन में सात, पीठ में बाहर और पांच लंबर व पांच सैवरल व अंत में चार काविस्कस मेरूदंड होते है। रीढ़ में समस्या दो तरह से शुरू हो सकती है। एक तो यदि किसी कारण वश डिस्क की स्थिति बिगड़ जाए। दूसरे मेरूदंड (वाटिब्रा)में असमान्य वृद्धि होने लगे।
 
मेरूदंड में असामन्य वृद्धि का मुख्य कारण अभी यह रहस्य का विषय है, जब कि अन्य कारणों में जन्मजात कमियों जैसे एक-दो हड्डी का न होना या आधा होना या फिर आपस में जुड़ा होना। अज्ञात कारणों से रीढ़ के विकार के रोगियों की संख्या 60 से 70 फीसदी तक है। इसे इडियोपेथिक स्कोसियोसिस कहते हैं।
 
जब कि 20 से 25 फीसदी मरीजों को यह बीमारी जन्मजात कारणों से होती है। इसे कंजेनाइटल स्कोसियोसिस कहते हैं। इसके अलावा लकवे के कारण मांस-पेशियों में कमजोरी आने से होने वाले स्कोलियोसिस संबंधी रीढ़ के विकार करे पेटेलिटिक स्कोलियोसिस कहते हैं।
 
रीढ़ के इस विकार में मेरूवक्रता तिर्यक और घूर्णन दोनों हो सकता है। जिससे एक तरफ की पसलियां इक_ी होकर स्कोलियोसिस का रूप धारण कर लेती हैं, कंधा एवं कमर ऊपर नीचे हो जाते हैं। मरीज की लंबाई कम हो जाती है, मेरूदंड में जकडऩ पैदा हो जाता है, शरीर कुरूप लगने लगता है। मरीज की कार्यक्षमता कम होने लगती है। 
 
मेरूदंड में विकृति के कारण फेफड़ों के पूर्ण विस्तार में रूकावट पैदा हो जाती है फलस्वरूप श्वसन-क्रिया प्रभावित होने लगती है। इस रोग में मरीज की जान को खतरा मेरूदंड में टेढ़ेपन से न होकर दिल और फेफड़े पर होने वाले दुष्प्रभाव से होता है।
 
आजकल स्कोलियोसिस (कमर के टेड़ेपन) का इलाज नयूनतम तकनीक से पीछे या आगे से डाले गए उपकरणों द्वारा किया जाता है तथा अब यह बहुत ही वैज्ञानिक तकनीक (जैसे डिरोटेशन ऑफ एपिकल वर्टिब्रा) द्वारा किया जाता है। अगर टेढापन बहुत ज्यादा या काफी पुराना हो गया है तो उसे पहले एंडोस्कोपिक तकनीक द्वारा लचीलापन बनाने के बाद सीधा किया जाता है। 
 
हम तकनीक में आगे एंडोस्कोप सीने या पेट में डाल के टेढ़ी रीढ़ की हड्डी में कई डिस्क को निकाला जाता है। जिसके बाद रीढ़ की हड्डी आसानी से सीधी हो जाती है। पहले यह काम मेजर (बड़ी) सर्जरी द्वारा सीने या पेट को खोल के होता था, जिसमें काफी खून बहता था और मरीज की रिकवरी काफी दिनों बाद संभव थी और कई बार मरीज की मृत्यु भी हो जाती थी। 
 
कमर को सीधा करते वक्त स्पाइनल कार्ड पर अत्यधिक खिंचाव आने के कारण पैर में लकवा आने का खतरा रहता है। खतरनाक स्थिति से बचने के लिए आजकल आपेरशन के दौरान नसों को भी साथ ही साथ मॉनिटर किया जाता है। स्कोलियोसिस संबंधी रीढ़ के विकार न तो देवी प्रकोप है और न ही लाइलाज है।

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